सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

कैसे भूलूँ वो दिन



आज जब मैं गुज़रा
उन राहों से
तो यादें...
फिर से..
ताज़ा हो गयीं,
जहाँ बिखरी हैं यादें
खुशबू की तरह
मेरे बचपन की...



वही हवा,वही पानी
वही खुशबू
मेरे गाँव की मिटटी की
जिसने मेरे बचपन को..
जवानी की दहलीज दिखायी



बदले हैं तो बस
कुछ चेहरे..
जो नए हैं..
मेरे लिए.
मैं उनके लिए,
टक- टकी लगी थी
मुझ पर...
जैसे की अजनबी हो कोई
गाँव में .....



उन गलियों को देखा तो
आँखें भर आयीं..
जहाँ कभी...
आँख मिचोली का खेल खेलते थे
और हाँ.....कभी-कभी
गली के कुत्ते भी दौडाते थे
मेरे घर तक..
और...
और मैं सहमा सा
लिपट जाता था
माँ के आँचल से...



अब भी वहीँ फैला है
माँ का प्यार, माँ का दुलार
और मेरा बचपन,
घर के आँगन में
जहाँ कभी...
माँ चंदा मामा की कहानियां सुनती थी
और मैं सो जाता था
सब कुछ भूल कर..
उसकी गोद में....



बचपन के खेल बड़े निराले होते हैं
मैं भी खेलता था
कुछ ज्यादा ही निराले खेल,
पेड़ की डाल पर चड़कर
छुआ-छुपी का खेल
झटक कर डाल से कूदना
और फिर चढ़ जाना
और कभी-कभी..
डाल से गिर जाना..
और कराहते हुए घर आना ..



खेत-खलिहानों के वो
टेढ़े-मेढ़े रास्ते..
जिन पर कभी
चलना मुश्किल होता था
आज भी वैसे ही हैं
जैसे वो मेरा इंतजार कर रहे हों
मेरे आने का..
और उन पर चलने का



पंछियों का वो..
एक सुर में चहकना
कोयल की वो कूक
पपीहे की वो आवाजें
सब कुछ वही है
बचपन के जैसा
नहीं है तो बस
मेरा बचपन.
मेरा प्यारा निराला बचपन
........कैसे भूलूँ वो दिन..........


4 टिप्‍पणियां:

  1. आँखें भर आयीं..
    जहाँ कभी...
    आँख मिचोली का खेल खेलते थे.

    This line is good.

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  2. यादें...खट्टी-मीठी यादें...बचपन की, अपने गाँव की यादें..
    बहुत कुछ सहेजने का प्रयास किया है आपने और बहुत कुछ यद् आ गया हमें भी.
    ...सुंदर.

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